Thursday, December 30, 2010


ब्लागर भाइयो को नववर्ष की ढेर सारी शुभकामना। आप सब यूंही ब्लाग के माध्यम से जुड़ें और जोड़े। हर समाज कुछ न कुछ रचता रहता है पर रचना सार्थक और सकारात्मक होनी चाहिए। अक्षम बच्चों के प्रति आपसब के संवेदनशील रुख को सलाम। आज मैं फिर अपनी कविता की वही चार पंक्ति लिख रहा हूं जो पिछले साल लिखा था.. .जो कल बीता वा आज नहीं,
जो आज यूंही ढल जाएगा
तुम रचते रहना पल-पल कुछ
तो वक्त संभलता जाएगा।


आप सब से ढेर सारी बातें करनी है। पर एक महत्वपूर्ण जानकारी के साथ आपसे अगले पोस्ट तक के लिए बिदा ले रहा हूं।जानकारी : नवजात शिशु में 67 फीसदी को पीलिया होता ही होता है लेकिन उनका थायरायड लेवल जरूर चेक करवाएं। डॉक्टरों ने बताया है कि 20 से 25 दिन के बच्चे का टीएसएच 9 प्वाइंट तक नार्मल है लेकिन उससे ज्यादा बढऩे पर उसके ब्रेन का विकास नहीं होता है। मेरे नवजात बेटे जो अभी एक महीने और 5 दिन का है टीएसएच 11.२ है। डॉक्टरों ने इसे चिंता का विषय बताते हुए फिर से हफ्ते भर में टेस्ट कराने को कहा है। लेकिन उन्होंने यह भी कहा है कि घबराने की कोई बात नहीं 25 एमजी की दवा चलाने से वह नार्मल रेंज में आ जाएगा। मैं अपने संघर्ष की बातें सांझा करना चाहता हूं ताकि जो मैं भोग रहा हूं दूसरे न भोगें।शुभ रात्रि.. .

Friday, August 13, 2010

सभी ब्लॉगर भाइयों को और नन्हे-नन्हे मासूमों को स्वतंत्रता दिवस की ढेर सारी शुभकामना

सभी ब्लॉगर भाइयों को और नन्हे-नन्हे मासूमों को स्वतंत्रता दिवस की ढेर सारी शुभकामना।
विनती है कि वो सारी व्याधियों से मुक्त हों और स्वस्थ रहें।

Monday, May 24, 2010

मैं तो बीमार था, मुझे पापा ने क्यूं छोड़ा ?

यह ब्लॉग अक्षम बच्चों के संघर्ष को समर्पित है।
जब अपनों का भरोसा टूटता है तो एक पल के लिए पूरी दुनिया अंधेरी हो जाती है। उस अंधेरे से लड़कर बाहर आना दूसरों के लिए उम्मीद की एक चराग रोशन करना है। गीता वर्मा ने जालंधर की एक ऐसी ही दास्तान भेजी जो कुछ दिन पहले भास्कर में प्रकाशित हुई थी।
मैडम मेरे नाम के साथ दुग्गल मत लगाना। मैं पति का नाम नहीं लगाना चाहती। उसने मुझे तब छोड़ा जब मुझे उसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी...
जया के बेटे का पूरा शरीर एक बीमारी ने डस लिया। हाथ-पैर नकारा हो गए। आवाज चली गई। बचा तो सिर्फ दिमाग। पढ़ाई-लिखाई बंद हो गई। स्कूल वालों ने राहुल को एडमिशन देने से मना कर दिया। पति ने कहा, वह अपनी सैलेरी इसके इलाज पर खराब नहीं करेगा। इसके बाद तो जैसे उसकी जिंदगी में तूफान आ गया। जया लुधियाना की हैं। राहुल जब 9 साल का था तो एक दिन अचानक भारी दस्त के बाद उसके पैरों में कमजोरी आ गई। राहुल के शरीर ने काम करना बंद कर दिया। हाथों में जान नहीं रही। पैरों से हरकत गायब हो गई। शब्दों ने मुंह का साथ छोड़ दिया। उन्होंने राहुल को कई डॉक्टरों को दिखाया पर किसी को कुछ समझ नहीं आया। यहीं तक होता तो ठीक था। रोज-रोज की भागम-भाग से झल्लाए पति ने एक दिन कह दिया कि राहुल कभी ठीक नहीं होगा। इस पर समय और पैसा खराब मत करो। इसकी जगह एक और बच्चा पैदा कर लेते हैं। जया जब इसके लिए तैयार नहीं हुई तो पति ने कहर ढा दिया। दूसरी शादी रचा ली। इसके बाद वह पति से अलग हो गई और उसमें और ताकत आ गई। उसने ठान लिया कि वह उसे ठीक करके रहेगी। उसे दिल्ली ले गई। अपोलो में जांच के बाद पता चला कि उसे मायलाइटिस पोर्स वायरल है। यह तंत्रिका तंत्र को प्रभावित करने वाला रोग है। न्यूरोलॉजिस्ट डॉ. पीएन रंजन ने बताया कि इस वायरल का कोई निश्चित इलाज नहीं है। फिजियोथैरेपी और एक्सरसाइज के जरिए कुछ मदद जरूर मिल सकती है। उन्होंने राहुल को भी समझाया कि हिम्मत उसे ही करनी होगी। अपने घर हैबोवाल आकर मां-बेटे दोनों 12-12 घंटे तक एक्सरसाइज करते। राहुल थक जाता पर मां का हौसला उसे और हिम्मत देता। फिजियोथैरेपिस्ट के हर निर्देश का पालन करते। मां के त्याग ने राहुल को मानसिक रूप से बहुत मजबूत बनाया। प्रयास रंग लाया। 6 माह में वह बोलने लग गया।इसके बाद राहुल को लगा कि वह ठीक हो सकता है। मां ने उसे बोलकर पढ़ाना शुरू किया। बहन नेहा उसके लिए लिखने की प्रैक्टिस करती। राहुल ने इतना रिकवर किया कि उसने 8वीं के पेपर स्ट्रैचर पर लेट कर दिए। अच्छे नंबरों ने उसका आत्मविश्वास और बढ़ाया। वह 10वीं के पेपर की तैयारी में जुट गया। वह घंटों बोलने की प्रैक्टिस करता और बहन लिखने की। स्कूल वालों ने दाखिला नहीं दिया तो उसने प्राइवेट पेपर दे दिए। अब इंतजार था रिजल्ट का। रिजल्ट आया तो राहुल ने सबसे ज्यादा नंबर पाए थे। लगन देखकर भारती विद्या मंदिर स्कूल ऊधम सिंह नगर ने उसे एडमिशन दे दिया। 12 वीं में जब उसने टॉप किया तो प्रिंसीपल सुनील अरोड़ा ने कहा, राहुल ने साबित कर दिया कि उसे दाखिला देना गलत निर्णय नहीं था। इसके बाद राहुल ने बीसीए ज्वाइन किया और पहले ही साल पंजाबभर में फस्र्ट आकर मां का नाम रोशन किया।सीखिए, ऐसे करते हैं दर्द का सामना राहुल के हाथ अभी भी तेजी से नहीं चलते। प्रैक्टिस के दौरान पेपर 7 घंटे में हल करता है। रात-रात भर उसे भयंकर दर्द होता है। कराहने की बजाय वह इस दर्द को पढ़ाई कर भूलने का प्रयास करता है।

Monday, May 10, 2010

कहने को सारा जहान अपना

इस दुनिया में पैसा को सबकुछ मानने वाले लोगों की संख्या ज्यादा है और आदमी को सबकुछ मानने वालों की संख्या कमइस जहान में आदमी को आदमी का साथ चाहिए। पैसा तो हम कहीं से लोन भी ले सकते हैं, आदमी कहां से लोन लें? लोगों के दिए भरोसे पर सोचते हुए जो ख्याल आया वो है.. .. .. .. .. ..
कहने को सारा जहान अपना था,
जब मांगा तो सब हवा हुए,
सब सपना था।।
कहने को सारा जहान अपना था।
ये जीवन माटी-ढेला सब,
बस राम नाम ही जपना था
सब सपना था।
सब कह के गए थे आएंगे,
जीवन भर साथ निभाएंगे,
हम राह तके और थके-थके,
हिस्से जो मिला तड़पना था,
सब सपना था।

Tuesday, April 20, 2010

नशे में गिरफ्तार पंजाब का बचपन


नशे का कोई सिद्धांत या उसूल नहीं होता, नशा तो सिर्फ गुलामी की भाषा समझता है। अपने आस-पास फटकने वाले कर शख्स को वह अपना गुलाम बना लेना चाहता है और फिर उसके चेहरे पर धीरे-धीरे बर्बादी की तस्वीर खींचता है। नशा देश के लगभग सभी हिस्सों में अपना फन फैला रहा है। लेकिन हाल में पंजाब की जो तस्वीर सामने आई है उससे भारत के भविष्य पर ग्रहण लगता दिख रहा है। नशे के दलदल में फंसे बच्चों की जो तस्वीर दैनिक भास्कर, चंडीगढ़ के ब्यूरो चीफ ब्रज मोहन सिंह ने खींची है उसे साभार प्रस्तुत कर रहा हूं।

पंजाब के लोगों ने आतंकवाद का डटकर मुकाबला किया और उसे शिकस्त भी दी, लेकिन यही सूबा अब नशे के खिलाफ जंग हारता दिख रहा है। पंजाब के वयस्कों में नशे की लत खतरनाक स्तर को पार कर चुकी है। इससे भी ज्यादा चिंता की बात है, वह ट्रेंड जिसके चलते पंजाब के ज्यादातर जिलों में बच्चे 10-11 साल की उम्र से किसी न किसी तरह का नशा करने लगते हैं। इंस्टीट्यूट फॉर डेवलपमेंट एंड कम्युनिकेशन ने पंजाब में नशे की बढ़ती प्रवृत्ति की स्टडी करने के लिए राज्य के 4 सरहदी जिले गुरदासपुर, अमृतसर, तरनतारन के 80 गांवों में सर्वे किया। इसमें अलग-अलग उम्र के 1527 लोगों से बातचीत की गई। ये सभी ऐसे थे, जो किसी न किसी तरह के नशे का इस्तेमाल करते थे। सर्वे के नतीजे चौंकाते हैं। सर्वे में शामिल 77 फीसदी नशा करने वालों की उम्र 11 से 18 साल के बीच है। पंजाब के फिरोजपुर जिले में 10 फीसदी ऐसे बच्चे मिले, जिन्होंने 10 साल से कम उम्र में ही ड्रग्स लेनी शुरू कर दी। उन्हें इस दलदल में धकेलने वाला कोई और नहीं बल्कि परिवार के लोग और उनके नजदीकी दोस्त हैं। फिरोजपुर में रामकोट गांव के 8 से 10 साल के बच्चों ने बताया कि उन्होंने घरवालों को देखकर ही नशा करना सीखा है। पंजाब एंटी-ड्रग कंट्रोल सेल के आर।पी. मीणा कहते हैं, नशे की समस्या इस हद तक गंभीर है कि पुलिस अधिकारियों को बच्चों को ड्रग्स के नुकसान के बारे में स्कूल जाकर बताना पड़ रहा है। नशे की आदत पर लगाम लगाने के लिए हम स्कूलों में जाकर पर्चियां बांट रहे हैं।


सरकारी निगहबानी में चल रहा धंधा


शहरी इलाकों के मुकाबले ग्रामीण क्षेत्रों में नशे की समस्या ज्यादा जटिल है। पंजाब सरकार सालों से कह रही है कि वो सबस्टांस ड्रग्स के ऊपर कड़ी निगरानी रख रही है, लेकिन सब कुछ यहां पेन किलर की आड़ में हो रहा है। मार्फिन वाली नशीली दवाइयां भी खुलेआम बिक रही हैं। पंजाब हेल्थ एंड ड्रग कंट्रोलर विंग के भाग सिंह कहते हैं कि सरकार की तरफ से कड़े निर्देश हैं कि बिना डॉक्टर के पर्चे के कोई भी नशीली दवा न दी जाए।अगर कोई ऐसा करता है तो उनके लाइसेंस रद्द करने का प्रावधान है। अधिकारियों के दावे अपनी जगह हैं, लेकिन सर्वे में शामिल 31 फीसदी लोगों ने ये बात कबूल की कि वो सिंथेटिक ड्रग्स की खरीद अपने गांव के मेडिकल स्टोर से ही करते हैं। स्पष्ट है कि सब कुछ सरकार की नाक के नीचे चल रहा है। नशे के बढिय़ा बाजार के चलते पंजाब के ग्रामीण और शहरी इलाकों में सिंथेटिक ड्रग्स सप्लाई करने वालों की एक चेन बन गई है। इन्हें राजनीतिक संरक्षण मिला होता है और पुलिस भी इनके खिलाफ कार्रवाई से हिचकती है। इस धंधे में ड्रग्स की बाकायदा होम डिलीवरी भी होती है। पंजाब में 11 फीसदी लोगों ने माना कि भुक्की की खेती पंजाब के गांवों में हो रही है, सरकार भले ही कुछ कह ले।

Wednesday, April 7, 2010

अमेरिकी हमले के कारण इराक में पैदा हो रहे विचित्र बच्चे

हमला किसी के हक में नहीं होता, हमला का गला घोंटना होगा। इराक में शांति के नाम पर जो अमेरिकी हमले हो रहे हैं, उसका खमियाजा मासूम बच्चों को भुगतना पड़ रहा है। दो हमलावरों की भ_ी में मासूमों की जिन्दगी झोंकी जा रही है। हमारी दुआ है कि हमलावरों को चेतना आए और वा समझौते की सरहद पर बैठकर शांति की तस्वीर खींचे। कुछ दिनों पहले इराक की जो तस्वीर खबरों के माध्यम से सामने आई है उसे आपसबों के समक्ष रख रहा हूं।
इराकी शहर फलूजा में अमेरिकी हमले के बाद से बच्चों में पैदाइशी खामियों के मामले बढ़ गए हैं। हालत इतनी खराब है कि नवजातों में सिर्फ हृदय संबंधी गड़बडिय़ों के मामले यूरोप की तुलना में तेरह गुना अधिक हैं। इराकी राजधानी से 40 मील पश्चिम में स्थित यह शहर नवंबर 2004 में अमेरिकी अभियान के दौरान भयानक संघर्ष का गवाह बना था। तब अमेरिकी फौज ने हमले में व्हाइट फास्फोरस व डिप्लीटेड यूरेनियम का इस्तेमाल किया था। डॉक्टर बच्चों में पैदायशी बीमारियों व खराबी के लिए इसे ही वजह मानते हैं। शिशुरोग विशेषज्ञ समीरा अल अनी के मुताबिक वे नवजात बच्चों में हृदय विकार के दो-तीन मामले वे रोज देख रही हैं। 2003 के पहले एक माह में ऐसा एक मामला सामने आता था। ऐसे मामलों की दर प्रति हजार बच्चों में 95 है, जो यूरोप की तुलना में 13 गुना अधिक है। कैसे-कैसे विकार : हृदय विकार, लकवा अथवा मस्तिष्क को नुकसान पहुंचने के मामले, बच्चों में तीन सिर, माथे पर आंख, हाथ में नाक पाए जाने जैसे कई मामले हैं। अमेरिकी फौज ने पल्ला झाड़ा: अमेरिकी सेना के प्रवक्ता माइकल किलपैट्रिक ने दावा किया कि सेना स्वास्थ्य से जुड़े मामलों को गंभीरता से लेती है। उन्होंने कहा, 'पर्यावरण को लेकर ऐसा कोई अध्ययन नहीं किया।
गाजा पïट्टी में भी यही करुण कथा
इजरायल द्वारा नवंबर 2008 में गाजा पïट्टी के फलस्तीनी इलाकों पर की गई कार्रवाई के बाद वहां भी बच्चों में जन्मजात विकृतियों के मामले बढ़े हैं। एक मानवाधिकार संगठन कांशस आर्गनाइजेशन फॉर ह्यïूमन राइट्स के मुताबिक इजरायली हमले के तीन माह पहले इलाके में जन्मजात खामियों वाले सिर्फ 27 बच्चे पैदा हुए थे। 2009 में यह संख्या अचानक बढ़कर 59 हो गई। इजरायल ने जाबालिया, बेइत, हनाउन व बेइत लाहिया जिलों पर व्हाइट फास्फोरस जबर्दस्त बमबारी की थी और जन्मजात खामियों के मामले भी यहीं अधिक पाए गए हैं।

Thursday, March 11, 2010

हौसला न छोड़ कर सामना जहान का


हौसला न छोड़ कर सामना जहान का
वो बदल रहा है देख रंग आसमान का
हौसला नामुमकिन को भी मुमकिन कर देता है। जो हौसलों के आगे हथियार डाल देते हैं परिस्थितियां उनको और दबाती हैं। बेहतर है विपरीत विरस्थितियों से लडऩा और खुद को साबित करना। मुमकिन है लडऩे वालों को कुछ भी न मिले पर कमसे कम यह गर्व तो होगा कि हम लड़े। और लडऩे वालों को भगवान क्यों नहीं देगा?, उसे देना होगा। चांद को थोड़ी सी ही सही चांदनी, सूरज को अपने तेज का आंशिक हिस्सा देना ही होगा। जिन लोगों ने साबित किया है उन विकलांग लोगों की अदभूत कला ने लोगों को दांतों तले उंगली दबा लेने पर मजबूर कर दिया। तस्वीर क्या कहती है पढ़ें नीचे। जॉर्डन के अम्मान में 'चाइना डिसेबल्ड पीपुल्स परफॉर्मिंग आर्ट ट्रूपÓ (सीडीपीपीएटी) के सदस्यों द्वारा प्रस्तुत बेहतरीन कला का प्रदर्शन। इस डांस गु्रप के सभी सदस्य बधिर हैं। इस नृत्य को 'सहस्रबाहूÓ भी कहा जाता है। इस डांस ग्रुप में कुल 104 कलाकार हैं, जो किसी न किसी रूप से विकलांग हैं। शो में कलाकारों ने गीत, संगीत, नाटक और नृत्य से ऐसा समां बांधा कि लोग मंत्रमुग्ध हो गए।

Sunday, March 7, 2010

गाय ने कन्याओं को जन्म दिया तो पूजा करने जुटे लोग


गाय ने दो कन्याओं को जन्म दिया तो लोगों का हुजूम उन कन्याओं की पूजा करने के लिए सेक्टर 45, चेडीगढ़ के नगर निगम गौशाले में इक_ा हो गया। गौशाले के मालिक ने लोगों से निवेदन किया कि ये खबर झूठी है पर लोगा फूल और मालाओं के साथ वहां जमे रहे। मुझे चंडीगढ़ सहित देश के तमाम लोगों की सोच पर हंसी भी आती है और तरस भी। जिस पंजाब में कन्या भूण हत्याएं होती हैं वहां गाय द्वारा जन्म कन्याओं की पूजा करने लोग दौड़ पड़ते हैं। मैं तो भगवान से यही प्रार्थना कर सकता हूं कि गाएं हीं कन्याओं को जन्म दें तब उनकी भ्रूण हत्या भी नहीं होगी और फूल मालाओं से पूजा कर उनका भव्य स्वागत भी। पंजाब में महिला-पुरुष अनुपात और अफवाह में लिपटी कन्याओं के प्रति लोगों का आकर्षण की खबर नीचे पेश कर रहा हूं।


पंजाब की स्वास्थ्य मंत्री लक्ष्मीकांत चावला के अनुसार पुरुष और महिलाओं का अनुपात २००१ के मुकाबले बढ़ा है पर फिर भी कम है। २००१ में यह प्रति १००० पुरुष ७८७ महिलाएं थीं जो २००९ में बढ़कर प्रति १००० पुरुष ८९४ हो गईं हैं।


लोगों का हुजूम मंगलवार को सेक्टर-45 स्थित नगर निगम की गौशाला की ओर बढ़ा चला जा रहा था। बच्चे, बूढ़े, युवा, स्त्री-पुरुष सब हाथ जोड़े गौशाला के गेट पर खड़े थे। कुछ लोग गेट पर ही माथा टेक रहे थे। अफवाह फैली थी, कि गाय ने बछड़े नहीं, इन्सान के दो बच्चों को जन्म दिया है। यह अफवाह से भी ज्यादा मजाक था, लेकिन भीड़ की नजर एकटक गौशाला की ओर टिकी थी। भीड़ के मुताबिक दिन के 2.30 बजे गौशाला में चारा देने आए किसी व्यक्ति ने लौटकर बताया कि गाय ने दो कन्याओं को जन्म दिया है। यह बात आग की तरह फैली और देखते ही देखते हजारों लोगों का हुजूम गौशाला की गेट तक पहुंच गया। गौशाला इंचार्ज को पता चला तो वह करीब 3 बजे मौके पर पहुंच गए। उन्होंने लोगों को समझाया कि एक सप्ताह से किसी गाय ने कोई बच्चा नहीं दिया है, यह सिर्फ एक अफवाह है। लेकिन लोगों पर उनकी बातों का असर नहीं हो रहा था। लोग हाथ जोड़कर खड़े थे, कुछ लोग प्रसाद चढ़ाने भी आए थे और कन्याओं के दर्शन करना चाहते थे। यह भीड़ आसपास की कॉलोनी और गांव की ही नहीं, बल्कि इसमें शहर के लोग भी शामिल थे। लोग कार और बाइक से गौशाला पहुंचे, जिससे मौके पर जाम के हालात पैदा हो गए। भीड़ धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थी। हालात की गंभीरता देख पुलिस बुलाई गई। नगर निगम के अधिकारी केआर चिरवतकर ने लाउडस्पीकर पर घोषणा की कि यह सिर्फ अफवाह है। इसके बावजूद लोग मान नहीं रहे थे। वे जाने के लिए तैयार नहीं थे। इस तरह का सिलसिला देर रात तक चलता रहा। भीड़ देख गौशाला का गेट बंद कर दिया गया था, लेकिन लोग गेट के बाहर डटे हुए थे। पुलिस ने बाद में हालात को नियंत्रितकियाखबरभास्कर से साभार लिया है।

Friday, March 5, 2010

अक्षम बच्चों के जीवन में एक रोशन चिराग

यह ब्लॉग अक्षम बच्चों के संघर्ष को समर्पित है और इस संबंध में जो भी जानकारी मिलती है उसे उन बच्चों और उनके माता-पिता तक पहुंचाने की कोशिश करता है। मानसिक रूप से अविकसित बच्चों को तराशना और उनमें एक समझ पैदा करना उल्टी धारा में नाव खेने जैसा है। जो लोग इस प्रयास में लगे हैं नन्हे पंख उन्हें सलाम करते हैं। कुछ दिन पहले भास्कर के लिए मैनेजमेंट फंडा कॉलम लिखने वाले एन रघुरामन ने 'हर एक की है उपयोगिताÓ नाम से यह लिखा था। इसे साभार लेकर मैं अक्षम बच्चों के संघर्ष में साझीदार लोगों के लिए प्रस्तुत कर रहा हूं। इस लेख से शायद उन्हें कोई दिशा मिलेगी।
मुं बई के एसपीजे सडाना स्कूल से 51 युवा पांच वर्षीय पॉलीटेक्निक व वोकेशनल कोर्स पूरा कर 10 मार्च को समाज की मुख्यधारा में अपनी राह तलाशने निकल पड़ेंगे। एसपीजे सडाना स्कूल मानसिक रूप से अविकसित बच्चों को सशक्त बनाने की दिशा में काम करता है। यह शिक्षण संस्थान खास तरह की शिक्षा व प्रशिक्षण के जरिए उन्हें इस हिसाब से तैयार करता है, ताकि वे दुनिया के साथ तालमेल बैठा सकें और समाज में अपना उपयोगी योगदान दे सकें। इस संस्था की उप-प्राचार्य राधिके पाटील का कहना है, 'यह काफी दिलचस्प सफर है। मुझे इस संस्थान से जुड़े हुए 25 साल से भी ज्यादा वक्त हो गया है और अब तो यह मुझे अपने घर जैसा लगने लगा है।Óइस स्कूल में दो सेक्शन हैं। पांचवी क्लास तक इस तरह के खास बच्चों को रचनात्मक चीजें सिखाई जाती हैं। इसके अलावा अपने किस्म का अनूठा पांच वर्षीय डिप्लोमा कोर्स भी है, जिसके तहत मानसिक रूप से अविकसित युवाओं को व्यावसायिक प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है। स्कूल का मुख्य उद्देश्य उन्हें ऐसी बुनियाद देने का है जिसके सहारे वे आत्मनिर्भर बन सकें और अपने अभिभावकों पर निर्भरता रूपी बेडिय़ों से मुक्त हो सकें।37 साल पहले शुरू हुए एसपीजे सडाना स्कूल ने समय के साथ-साथ आगे बढ़ते हुए पठन-पाठन की नई-नई तकनीकें और अनूठा पाठ्ïयक्रम तैयार किया। राधिके के मुताबिक, 'हमारे समक्ष बड़ा काम है। ऐसे बच्चों के लिए कोई आरक्षण नहीं है। रोजगार की श्रेणी में उनके लिए कोई आरक्षण नहीं होता। हम इन बच्चों को प्लेसमेंट का मंच देते हैं और हमारी सफलता की दर 93 फीसदी है। ये सभी अच्छी जगहों पर पहुंचे हैं। असल में लोगों को उन पर भरोसा करना चाहिए और उन्हें यूं ही खारिज नहीं कर देना चाहिए।Ó चूंकि उन्हें भविष्य के लिहाज से अपनी शारीरिक सीमाओं से आगे देखने और सीमाओं से परे जाने की जरूरत होती है, इस लिहाज से स्कूल नई-नई तकनीकों की मदद से शिक्षा तथा इस तरह का प्रशिक्षण देता है ताकि उन्हें इस स्वार्थी दुनिया में खारिज न कर दिया जाए। इस स्कूल के पॉलीटेक्निक कोर्स का मुख्य फोकस अलग-अलग विभागों में प्रशिक्षण व शिक्षा के जरिए इन्हें मुख्यधारा के समाज के साथ जोडऩा है। इसके साथ-साथ रोजगार के हिसाब से जरूरी मानदंडों पर भी जोर दिया जाता है, मसलन काम के दौरान आपका व्यवहार सही रहे, आप दूसरों के साथ बेहतर संवाद स्थापित कर सकें। इन्हें सेल्फ-हेल्प का हुनर भी सिखाया जाता है। कार्यशालाओं और फील्ड ट्रिप्स पर ले जाना इस प्रोग्राम का अभिन्न हिस्सा है। खासकर इंटर्नशिप के अंतिम दो वर्र्षों में तो ऐसा ही होता है। इससे उन्हें बेशकीमती अनुभव मिलता है। अलग-अलग तरह की परिस्थितियों को प्रत्यक्ष समझने का अवसर मिलता है और बाधाओं से पार पाने का व्यावहारिक प्रशिक्षण मिलता है। इस दौरान स्कूल द्वारा अपनाई गई सुरक्षा व्यवस्था ही इनके साथ होती है। इस कोर्स में शामिल हैं- विजुअल आट्ïर्स एंड क्राफ्ट्ïस, हॉस्पिटैलिटी एंड कैटरिंग। तीन साल के गहन प्रशिक्षण के बाद चौथे व पांचवें साल में इंटर्नशिप पर ध्यान दिया जाता है। वोकेशनल कोर्स में शामिल हंै- हल्की मशीनों पर काम करना, सॉर्र्टिंग, एसेंबलिंग, स्टिकिंग, पैकेजिंग और प्रिंटिंग।

Friday, January 1, 2010

'पल दो पलÓ

नये साल के शुभ अवसर पर आप तमाम ब्लॉगर भाइयों को शुभकामना। नन्हे पंखों की ओर से आप सबको ढेर सारा प्यार। नए साल के इस पल को जिस तरह मैंने महसूस किया और इसें जिन शब्दों में पिरोया, आपके सामने रख रहा हूं। इसे लिखते हुए मैं अपने वास्तविक मुहिम से हर पल के अहसास को जोडऩा चाहता हूं। नन्हे पंखों के पलपल का जो अहसास है उसकी कुछ छवि शायद आपको इन पंक्तियों में मिले।

पेड़ों के नीचे बैठे पल ,
कुछ सोए से, कुछ संभल-संभल।
कुछ हाथों से यूं फिसल-फिसल,
वो दूर खड़े मुस्काते पल।
कुछ सपनों में, कुछ अपनों में,
कुछ घायल से कतराते पल।
कुछ बिखरे-बिखरे पत्ते से,
कुछ खिलते से, अंकुराते पल।
कुछ पल दो पल में हवा हुए,
बीते जीवन, मुरझाते पल।
कुछ याद रहे, कुछ भूल गए,
कुछ साथ चले हमसाए पल।
ये पल जो पल पल खोते हैं,
हम याद जिन्हें कर रोते हैं,
यूं रात-रात क्यूं जागे पल,
आंखों से कच्चे धागे से,
यूं छलक-छलक छलकाते पल।
लहरों सी ऊबडूब सांस हुूई,
जब जीवन घिरकर फांस हुई,
वो मुश्किल से समझाते पल।
अपनों का कंधा कंधा है,
बाकी तो झूठा फंदा है,
क्यूं झूठे वादे कर-कर के,
यूं लूट गए बलखाते पल।
जो वक्त के तिनके चुन चुनकर,
यंू रखा इक चेहरा बुनकर,
वो कल का चेहरा आज नहीं,
उन्हें ढूंढ़ रहे घबराते पल।
जो कल बीता वो आज नहीं,
जो आज, यूंही ढल जाएगा,
तुम रचते रहना पल-पल कुछ,
तो वक्त संभलता जाएगा,
जीवन एक बहता दरिया है,
बहते रहना सिखलाते पल।
पेड़ों के नीचे बैठे पल ,
कुछ सोए से, कुछ संभल-संभल।