Tuesday, March 3, 2009

उनमें हैं बच्चों के लिए कुछ करने का जज्बा

यह ब्ïलॉग अक्षम बच्चों के संघर्ष को समर्पित है। जो लोग इन बच्चों के संघर्ष में साझीदार हैं, हम उनको सलाम करते हैं। ऐसी ही एक संजीदा महिला हैं 78 वर्षीय प्रोमिला चंद। दैनिक भास्कर चंडीगढ़ के वरिष्ठï पत्रकार गुलशन कुमार ने इनसे बात की और स्पेशल बच्चों के बारे में इनकी प्रतिबद्धता को कुछ यूं बयां किया। हम दैनिक भास्कर से साभार लेकर इसे अपने ब्ïलॉग पर प्रकाशित कर रहे हैं।
बुजुर्ग महिला ने शारीरिक और मानसिक रूप से अक्षम बच्चों के लिए खोला खास तरह का स्कूलउम्र के आखिरी दौर में पहुंच चुकी 78 वर्षीय प्रोमिला चंद्र मोहन ने स्पेशल किड्स के लिए शहर में एक ऐसा सेंटर तो बना दिया है जो बच्चों को जिंदगी में अपने पैरों पर खड़ा होने में सक्षम बना रहा है। पर अभी भी काफी काम बाकी है और प्रोमिला चंद्र मोहन ऐसे बच्चों के लिए ही कुछ साल और मांग रही हैं। प्रोमिला चंद्र मोहन के अनुसार लर्निंग डिसेबिल्टीज, डिसलेक्सिक, ऑटिजम, एडीएचडी, मेंटली चैलेंजड जैसी विभिन्न न्यूरो दिक्कतों से जूझने वाले बच्चों की संख्या शहर और आसपास के राच्यों में लगातार बढ़ रही है, जबकि उनके लिए एक भी ऐसा सेंटर नहीं है जो उन्हें अच्छी तरह से समझ सकें। ऐसे में प्रोमिला चंद्र मोहन ने सेक्टर-36 में एक विशेष सेंटर सोरेम (सोसाइटी फॉर द रिहेबिल्टेशन ऑफ मेंटली चैलेंजड), बनाया है जिसमें बच्चों को सामान्य शिक्षा के साथ ही ऑक्युपेशनल थेरेपी, फिजियो थेरेपी, स्पीच थेरेपी, स्पोर्ट्स, संगीत, योग के जरिए सामान्य करने के प्रयास किए जा रहे हैं। बच्चों के लिए वोकेशनल ट्रेनिंग का भी इंतजाम है, जिससे वे आगे चल कर रोजगार भी प्राप्त कर सकें। सेंटर में 40 से अधिक बच्चे एडमिशन ले चुके हैं। इन्फ्रॉस्ट्रक्चर के लिए फंड की कमी : प्रोमिला चंद्र मोहन ने बताया कि प्रशासन से जमीन मिलने के अलावा और भी कई लोगों ने सहयोग किया। लेकिन अभी भी पूरा इन्फ्रॉस्ट्रक्चर तैयार करने और सेंटर को पूरी तरह से क्रियान्वित करने के लिए काफी कुछ करना बाकी है। प्रोमिला के अनुसार ऐसे बच्चों के लिए प्रशिक्षकों से लेकर फंड की भी कमी है। बच्चों की थैरेपीज और ट्रेनिंग के लिए उपकरण एवं सामान काफी महंगा है। स्केटिंग रिंक और बॉस्केटबॉल स्टेडियम बन चुका है, जबकि कुछ इन्डोर गेम्स के लिए तैयारी चल रही है। फिलहाल सोसायटी मेंंबर और अन्य दानी लोग ही फंड् आदि का इंतजाम कर रहे हैं लेकिन बच्चों की बढ़ती गिनती के साथ ही सेंटर की आर्थिक जरूरतें भी बढऩा तय है। बच्चों को समझने की जरूरत: बीते पांच दशकों से खेल और शिक्षा से जुड़ी प्रोमिला चंद्र मोहन के अनुसार स्पेशल किड्स की जरूरतें सामान्य बच्चों से अलग होती है। सबसे पहले यह बात उनके मां-बाप को समझनी चाहिए और फिर शिक्षकों को। ऐसे बच्चों को नजरअंदाज करने के बजाए उनकी तरफ विशेष ध्यान देने की जरूरत है। सही इन्टरवेंशन मिलने से उन्हें भी समाज की मुख्यधारा में शामिल किया जा सकता है। एक्सपेरीमेंटल म्यूजिक एवं गेम्स से ऐसे बच्चों को काफी हद तक सामान्य किया जा सकता है।मां-बाप की मुश्किलें: स्पेशल किड्स की विभिन्न थैरेपीज के लिए चंडीगढ़ और मोहाली में एक-दो प्राइवेट सेंटर हैं तो उनकी फीस आम लोगों के बस से बाहर की बात है। सेंटर में आने वाले मां-बाप भी सरकारी संस्थानों से निराश ही दिखते हैं। ऐेसे ही एक अभिभावक ने बताया कि एक सेंटर में काफी क्लोज इन्वायरमेंट में बच्चों को मशीनी अंदाज में थैरेपीज दी जा रही है और फीस भी काफी भारी-भरकम है। जबकि सोरम काफी खुले स्पेस में बना है और फीस भी आम आदमी की पहुंच में है।

1 comment:

संगीता पुरी said...

बहुत अच्‍छा ब्‍लाग बनाया आपने ..;